Friday, August 10, 2012

मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को ब्रह्म हत्या

छत्तीसगढ़ में हमारी किविदन्तियों एवं लोक कथाओं के अक्षय भण्डार में ऐसे ऐसे विलक्षण प्रसंग भरे पड़े हैं कि लगता है इनका विधिवत सृजन एक समानान्तर रामचरित मानस को जन्म दे सकता है ,कुछ कथाएं बहु प्रचलित है और कुछ अल्पपरिचित ऐसी ही एक छोटी सी किन्तु महत्वपूर्ण कथा सौभाग्य से एक स्वामी जी से प्राप्त हुआ । जिज्ञासु लोगों का प्रश्न यह है कि रावण जैसे प्रकाण्ड पंडित महान शिव भक्त, अनेक देवी देवताओं को दास बना लेने वाले उद्भट ब्राह्मण का वध कर क्या मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को ब्रह्म हत्या का महापाप न लगा होगा ? और यदि लगा हो तो इसके परिमार्जन हेतु प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने क्या किया ?
कथारंभ कुच इस तरह था सीता को रावण की कैद से छुड़वाने के मूल उद्दश्य से श्रीराम ने रावण को बहुत समझया कि वह व्यर्थ का बैर मोल न ले और जनक नन्दिनी को आदर सहित वापिस लौटा दे किन्तु रावण तो रावण ठहरा, उसे इसप्रकार सीधी तरह सीता को भगवान केपास लौटाना होता, तो एक चोर की तरह उनका अपहरण ही क्यों करता । उसने तो भिक्षुक का वेष धारण कर छल कपट का सहारा लेकर लक्ष्मण रेखा के इस पार सीता को आने की अनिष्टकारी धमकी देकर मायावी स्वर्णमृग बने मारीच के पीछे भागते राम और उन्हें ढूढने गए लक्ष्मण की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर यह अपहरण काण्ड पूर्व नियोजित षडयंत्र की भांति किया था । वह भला क्यों सादर सीता को लौटाने के लिए उधत होता । उसने तो इस दुष्कृत्य के अंतर्गत जटायु से युद्ध कर उसके दोनों पंख काट डाले । राम को अपने प्रिय भक्त का प्राणांत अपनी गोद में ही देखना था । पक्षी राज ने पूरी ताकत से रावण का सामना किया था यदि वह अपने इस प्रयास में सफल हो जाता तो रामायण की कथा ही कुछ और होती । फिर राम पर ब्रह्म हत्या पाप न लगता । साथ ही रावण को भी उस स्थिति में निश्चित ही वह पद नहीं मिलता जिसका अधिकारी वह श्रीराम के द्वारा मारे जाने से हो गया ।
वह भविष्य का ज्ञाता था । वह ऐसी ही मृत्यु चाहता था किन्तु राम लक्ष्णण को जरूर उसने संकट मे ंडाल दिया । दुष्ट व्यक्ति अपनी मृत्यु के पश्चात भी भले लोगों के दुख के कारण बने रहते हैं इस कथा मं यही बात विशेष रूप से बतलाने का प्रयास किया गया है ।
भयंकर युद्ध में श्रीराम एवं लक्ष्मण जी ने दुरभिमानी रावण को मार तो दिया क्योंकि और कोई उपाय शेष बचा ही नहीं था किन्तु ब्रह्म हत्या पाप लग ही गया । क्षत्रियों को इस बात की बहुत अधिक चिन्ता हो जाया करती है आज भी क्षत्रिय इस बात पर विश्वास करते हैं कि ब्राह्मण की हत्या महापाप है ।श्रीराम लक्ष्मण को सुझाव दिया गया कि प्रायश्चित स्वरूप ब्राह्मण भोजन का आयोजन करे ताकि पाप का शमन हो और पाप से मुक्ति मिले । दोनों भाई सम्पूर्ण अयोध्या के ब्राह्मणों को एक विशाल ब्रह्म भोज में आमंत्रित कर रहे थे किन्तु उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा , जब उन्हें बताया गया कि अयोध्या का कोई ब्राह्मण उनके भोज में सम्मिलित होना नहीं चाहता । सभी ने इंकार कर दिया है । समस्या और भी जटिल हो गयी । फिर किसी ने उन्हें सुझाया कि महाराज नगर को छोडि़ए । यदि यहां के ब्राह्मण आपके भोज का आमंत्रणसवीकार नहीं करते तो आप वन प्रान्तर में दूरस्थ तपस्यारत किसी तपस्वी ब्राह्मण को खोजे, शायद वह आपका आमंत्रण स्वीकार कर ले। देखिए सवाल तपोबल का है जिसका तपोबल इतना ऊंचा होगा, कि वह आपके शीश पर की पाप की गठरी को उतातकर स्वंय अपने सिर पर धारण कर सके । आखिर वही तो इस पाप की मुक्ति के निमित्त आपका भोजन ग्रहण करने का साहस करेगा ।
अब पहली बार राम लक्ष्मण को ज्ञातहुआ कि वास्तव में उनसे एक बड़ा अपराध हुआ है । यदि सचमुच ही कोई ब्राह्मण इस भोज के लिये प्रस्तुत न हुआ तब फिर क्या होगा ? उनके समक्ष एक विकट समस्या खड़ीहुई थी । यह तो सचमुच रघुवंश पर सदा सदा के लिए एक कलंक की बात होगी । एक क्षणाच्र्ध के लिए श्रवण कुमार की दुखद एवं असामयिक मृत्यु और उसके रोते बिलखते माता पिता द्वारा जीर्ण शीर्ष वृद्धावस्था में दिए गए श्राप से अपने पूज्य पिता महाराज दशरथ की हृदय विदारक अंतिम यात्रा का सार प्रसंग उनकी आंखों के समक्ष आ गया ।
यद्यपि रावण की पत्नी मन्दोदरी या अन्य किसी भी संबंधी न उन्हें प्रकट रूप से कोई श्राप तो नहीं दिया था परंतु उनका मन भी दुखी तो हुआ ही था और दुखी मन की हाथ से क्या नहीं हो जाता । श्रीराम लक्ष्मण को चिंता हुई कि भविष्य अब भी अंधकार मय ही है ।
खैर ब्राह्मणों की नहीं सुनते सुनते निराश और लगभग हताश हो चुके दोनों भाईयों को अन्तत: एक तपस्वी ओजस्वी ब्राह्मण बालक वन में तपस्या करते मिला । उसने अपने विराट तपोबल से दूर से ही समझ लिया कि इन दोनों अवतारी पुरूषो ंको समाज की मर्यादा निभाने के लिये एवं लोकाचार हेतु यह कर्य तो सम्पन्न कराना ही है। अन्त में मैं ही क्यों न कुछ कठोर शर्तों के साथ इनका आमंत्रण स्वीकार कर लूं । पुण्य के भागी तो सभी बनना चाहते हैं मैं इनके पाप का भागी बनूंगा । मैं श्रीराम लक्ष्मण के सिर पर की पाप की गठरी का कुछ बोझ तो अवश्य ही ढो सकता हूं मुझे इनकी मदद करनी चाहिए । यह सामाजिक हित का कार्य है ।
जैसे ही उस बालक के समीप जाकर उन दोनों भाईयों ने अपनी व्यथा उस तेजस्वी से कही तो उसने कह कि आप दोनों बैलगाड़ी में जुए की जगह बैलों की तरह जुत कर मुझे भोजन कराने ले जाय और वापिस उसी तरह यहां लाकर छोड़े और साथ ही यदि सीता जी बिना अग्नि के भोजन बनावे और वे अपने हाथ से मुझे भोजन कराए तो मैं तैयार हूं । तिथि एवं समय आप लोग अपनी सुविधा से निश्चित कर लें । उन दोनों भाईयों को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे अंधे को आंख मिल गई हो । आज तक तो कुछ सूझ ही नहीं पा रहा था कि क्या करे और क्या न करे । अब संतोष हुआ कि इतने दिनों का परिश्रम सफल हुआ। निर्धारित तिथि को इधर सीता जी ने निर्देश के अनुसार भोजन तैयार किया और उधर दोनों भाई खुशी खुशी बैलगाड़ी में बैलों की तरह जुतकर तपस्वी ब्राह्मकुमार को सादर घर लिवा लाए । अवधवासी यह दृश्य देखकर चकित रह गए । सीता जी तो रो पड़ी । उन्हें लगा कि सारी दुर्दशा क कारण आखिर मैं ही तो हूं । उन्होंने जैसे तैसे साहस जुटाकर अभी प्रथम कौर ही उस ब्राह्मण बालक के मुंह में देने का प्रयास किया कि वह सहृद्य कोमल कुमार भी उन्हें रोते देख रो पड़ा । ऐसी स्थिति में भोजन करना कठिन ही था ।
इससे सीता जी को लगा कि कहीं उनसे ही तो भोजन बनाने में त्रुटि नहीं हो गई । उधर छोटे भाई लक्ष्मण को भी अपने स्वभाव के अनुरूप मन ही मन थोड़ा बुरा भी लगा । जो कि स्वाभाविक ही था । सोचने में लो एक तो श्रीमान के लिए बैल बने और ऊपर से ब्राह्मण महराज कुमार इसपर भी अप्रसन्न ही रहे । किन्तु घट घट के जानने वाले भगवान अन्तर्यामी श्रीराम ने तपस्वी बालक के हृदय की बात ताड़ ली । उन्होंने अत्यंत विनीत भाव से निवेदन किया। ब्राह्मण राजकुमार हमारा यह रूखा सूखा अन्न अत्यन्त कृपावन्त होकर प्रसन्न मुद्रा में ग्रहणकरन ेकी अनुकम्पा करे यह तो समय की गति है । इसके वशीभूत आप भी है और हम भी । जो सतयुग में था वह त्रेता में नहीं है, और द्वापर में यह भी नहीं रहेगा । उसके आगे तो और भी बुरा समय आने वाला है उसे कोई रोक नहीं सकता । ब्राह्मण कुमार ने ज्यों ज्यों प्रथम द्विथीय और तृतीय कौर सीता जी के हाथ से ग्रहण किया तो सबकी जान में जान आई सीता का हाथ ब्राह्मण कुमार के आंसुओं से भीग चुका था । किन्तु इसके साथ ही महान रघुवंश से महाब्रह्म हत्या का पाप भी सदैव के लिए उतर चुका था।
तपस्वी बालक ने जैसे तैसे भोजन पूरा किया क्योंकि उसका ध्यान भोजन की अपेक्षा भविष्य पर अधिक था राम एवं लक्ष्मण ने एक बार फिर बैल बनकर उसे तुरन्त ही उसकी उसी कुटिया में सादर वापिस पहुंचाया । परंतु मार्ग में भी वह बालक मौन ही रहा । सोच में ही डूबा रहा । अब तो लक्ष्मण जी से रहा न गया । उन्होंने पूछ ही लिया ब्राह्मण कुमार क्या हमसे कोई त्रुटि रहगई ? आप अब भी इतने अनमने एवं उदास क्यों है ? हमे ंबताइये । इसे दूर करने के लिए आपकी क्या सेवा की जाय। उत्तर में ब्राह्मण कुमार ने कहा जो कुछ मैंने आज किया है वह केवल आप लोगों की प्रसन्नता के लिए ही है । आपके सुखद भविष्य के लिए यह आवश्यक था कि आप पाप मुक्त हों । जब किसी ने आपका आमंत्रण नहीं स्वीकारा तभी तो आप लोग मुझ तक पहुंचे थे । मैं नहीं जानता कि मेरे कारण इसमें आपको कितनी सफलता मिलेगी । परंतु यह सत्य है कि यह कोई शुभारंभ नहीं है । मुझे इस बात का मान था कि आज मैंन एक ऐसी शुरूवात की है जिसका कोई अन्त नहीं है । अब ब्रह्म हत्याएं भी होगी और ब्रह्म भोजों से उनका प्रायश्चित भी हुआ करेगा । अपनी त्रुटियों का प्रायश्चित करने का यह कोई आदर्श तरीका नहीं है ।
राम एवं लक्ष्मण दोनों को विद्युत झटका सा
लगा । उन्होंने पाया कि लौकिक रूप से पाप का प्रायश्चित भले ही हुआ है किन्तु अपराध भाव तो ज्यों का त्यों कायम है। सामाजिक विशेषताएं - अवतारी पुरूषों से भी क्या क्या काम करवाती है , फिर सामान्य लोगों को तो पग पग पर धर्म संकट उपस्थित होते रहते हैं अनेक बार तो मति भ्रम हो जाता है इधर कुआं उधर खाई की स्थितियां बनती रहती है । सत्संग से समाधान मिलने की प्रबल संभावनाएं रहती है । तेजस्वी ब्राह्मण बालक का सोचना भी कितना सही था । इसी नजरिये से सारा भारत देख रहा है । लगता है अभी और भी बहुत कुछ देखना शेष है । कलियुग का चौथा चरम अभी बहुत बाकी है।
राजेन्द्र कुमार शर्मा, राजनांदगांव
रामायण प्रधान समिति

1 comment:

Unknown said...

Very interesting and informative.

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