Monday, May 17, 2010

केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल और पुलिस वालो के बाद जनता पर नक्सलियों कहर

देश में पिछले वर्सो से नक्सलियों ने कहर बरसना जारी रखा है ! और अब तो हदों को पार कर दी है, जब की २०१० में अब तक छत्तसीगढ़ के दंतेवाडा जिले में आज सोमवार को नक्सलियों ने यात्रियों से भरी एक बस पर हमला किया जिसमें 40 लोगों के मारे जाने की आशंका है। बताया जा रहा है की इस बस में २० पुलिस वाले भी सवार थे , ये भी सुरक्चा त्रुटी कहा जा सकता है इसके पहले 16 मई, 2010: राजनंदगांव, छत्तीसगढ़- नक्सली हमले में छह की मौत को मोत के घाट उतरा था , 06 अप्रैल, 2010: मुकराना के जंगल, दंतेवाड़ा, में देश के अब तक के सबसे बड़े माओवादी हमले में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 75 कर्मियों की हत्या कर दी थी ये सब घटनाये देस को हिला कर रखने वाली है ! नक्सलियों की ताकत और होसले दिनोंदिन बदती जारही है वह चिंता का विषय है भारत की सरकार ने छत्तीसगढ़ में पेरा मिलिट्री फोर्स की ४५ तुकडीया याने लगभग ४५००० जवान और १५-२० हेलीकाफ्टर सहित सारी सुविधाए दी है लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार की होसले पस्त होते जारहे है , छ ग के मुख्य मंत्री और डी गी पी के पास वाही घिसे पिटे जबाब ही मिल रहे अब ये नकसली वारदाते देश के चुन्निदा प्रदेशो तक सिमटती जा रही तो यहाँ सरकार को भी अपनी योजना पर पुनर्विचार करना होगा देस की यह आंतरिक समस्या एक गंभीर मोड़ पर खड़ी हो गयी है

2 comments:

Anonymous said...

बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |

बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर

सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |

बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !

आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब

केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।

फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।

विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से

36solutions said...

मन बहुत भारी है, पर हम कुछ भी नहीं कर सकते, इसका हल राजनैतिक मनोबल से ही संभव है. हम छत्‍तीसगढ़ के ऐसे हालातों के बाद भी दो चार दिन रो-गा के हंसने का बहाना ढूंढते रहते हैं या चुप हो जाते हैं. सचमुच में हृदय से हाय ! के अतिरिक्‍त और कुछ भी नहीं उठ रहा.

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